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आरक्षण: एक सहूलियत या विभाजन का आधार!

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आरक्षण के मुद्दे पर हमारे देश में समय समय पर राजनीति गर्माती रहती है| शायद ये एक ऐसा मुद्दा है जिस पर जब चाहें हल्ला मचाया जा सकता है| फिलहाल राज्यसभा में आरक्षण के मुद्दे पर बहस जारी है जिसमे आरक्षण समर्थकों का पलड़ा थोड़ा भारी पड़ता दिखाई दे रहा है|
आरक्षण का नाम आते ही कुछ प्रश्न दिमाग में आते हैं जैसे कि:

*आरक्षण की हिमायती राजनीतिक पार्टियाँ इस पद्धति को पहले स्वयं अपनी पार्टी में ही क्यूँ लागू नहीं कर लेतीं? पार्टी में विभिन्न पदों को भी जाति के आधार पर आरक्षित क्यूँ नहीं कर देतीं?
*सभासद, विधायक, सांसद, मंत्री इत्यादि के लिए अधिकतम आयु सीमा, न्यूनतम शैक्षिक योग्यता इत्यादि क्यूँ नहीं लागू कर दिए जाते?

ये तो साफ़ है कि आरक्षण के नाम पर हमारे देश में नेता केवल अवसरवादिता की राजनीति करते हैं| आज आरक्षण एक सहूलियत नहीं अपितु विभाजन का आधार बन गया है| इस व्यवस्था के नाम पर ही हमारे नेताओं की रोजी रोटी चल रही है|
*क्या इंसानों के बीच में जातिवाद के आधार पर सुविधाओं का बटवारा करना सही है? *क्या गरीबी जाति देखकर आती है?
*क्या हवा , पानी जाति के आधार पर प्रयोग होते हैं ?
*आरक्षण के नाम पर समय समय पर कई आंदोलन होते रहते हैं किन्तु क्या वो देश की प्रगति में सहायक हैं?

आज लोगों को अपनी मानसिकता में परिवर्तन लाना होगा, समझना होगा कि ये आरक्षण कोई सहूलियत नहीं है अपितु ये इंसानों के बीच में विभाजन का आधार बन चुका है और इस आरक्षण नाम के दानव के सहारे अवसरवादी व देश की प्रगति में बाधक तथाकथित नेता अपनी खोखली नेतागिरी की नैया को चलाते रहते हैं|

अगर सुविधाओं का बंटवारा करना ही है तो इसके लिए आधार व्यक्ति की आर्थिक स्थिति को बनाना चाहिए ना कि जाति को|
जाति के आधार पर आरक्षण व्यवस्था समाज में केवल अशांती ही फैला सकती है ,समाज का उद्धार नहीं कर सकती!

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